Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २३५

३१. ।श्री गुर अरजन जी लाहौर आए॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>३२
दोहरा: इस क्रित को करि सतिगुरू, निसा भई पुन आइ।
ग्रिह प्रवेश भोजन करो, बैठि प्रयंक सुहाइ ॥१॥
चौपई: साधी१ श्री गंगा चलि आई।
बैठी निकट देखि सुख पाई।
श्री अरजन सभि बाति बखानी।
सुनहु आरजे! भाग महानी२ ॥२॥
लवपुरि को हम करहि पयाना।
होति प्राति निशचे हुइ जाना।
तव सुत सकल काज को साना।
धरम धीर धरि धरनि समाना३ ॥३॥
नहीण सदीव देहि इह रहै।
यांते सुमति सनेह न गहै।
जो अुपजहि सो बिनसन हारि।
जो अूचो सो गिरने हारि ॥४॥
इही सनातन देहनि धरम४।
इस महि प्रेम, महां अुर भरम५।
दिन प्रति सभि प्रणाम६ को पावहि।
प्रथम समान सथिर न रहावहि ॥५॥
बालिक ते होवहि सु कुमार।
तरुन होति पुन ब्रिधता धारि।
जरा ग्रसे तबि जीरण होइ।
बहुरो अंत समेण महि सोइ ॥६॥
रहु पीछे कुछ सोक न मानहु।
देहि आप ते तजनि न ठानहु७।


१पतिब्रति इसत्री।
२हे स्रेशटे! वडे भागां वालीए।
३धरम ते धीरज ळ धारन वाला है धरती दे समान।
४आदि तोण सरीराण दा धरम।
५रिदे विच (इह) बड़ा भ्रम है।
६घटंा, अंत।
७आपणे आप देह छज़डंा ना करो।

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