Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २४०

३१. ।भीमचंद दा दूत हाथी मंगण आया॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>३२
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू करति अनेक बिलास।
करी प्रसादी पर चढैण महिद शिंगारैण तास ॥१॥
चौपई: बन महि बिचरहि पुन पुरि आवहि।
अनिक अखेर घात करि लावहि।
जिन जीवन के पुंन प्रकाशे।
सतिगुर हाथ बनहि तिन नाशे ॥२॥
तेज तुरंगम परआरोहैण।
चलति फंदावति म्रिग जिम सोहै।
बहु शसत्रनि अज़भास कमावहि।
नर ढिगवरती को सिखरावहि ॥३॥
तोमर, तीर, तुपक, तरवार।
तबर, तमांचे, ते चारु।
बखशहि सुभटनि को हरखावहि।
आप चलाइ तिनहु दिखरावहि ॥४॥
अधिक सूरता करहि सराहिनि।
लरकति होइ लोक भट बाहन१*।
बिजै करहि भूतल सुख भोगहि।
रन करि मरहि जाति सुर लोगहि ॥५॥
तहां अनेक अनद मिलै हैण।
सुजसु बिलद सभिनि महि पै है।
देश बिदेशन संगति आवहि।
दरसहि, मनो कामना पावहि ॥६॥
सिज़खनि को शुभ मति नित देति।
भगति गान वैराग समेत।
इस प्रकार नित समा बितावैण।


१सूरमे दीआण बाहां नाल लोक लटकदे हुंदे हन। पर जापदा है कि असल पाठ होणा है लरकत
दोइ लोक भट बाहन = सूरमे दीआण बाहां नाल दोए लोक लटकदे हन, लिखारी दी कलम अुकाई
ने, दोइ दा होइ कर दिज़ता है।
किअुणकि अगे कवि जी दोहुं लोकाण दा वेरवा बी गिंदे हन। अते अज़गे कई थाईण इहोखाल कवी जी दा आअुणा बी है।
*पा:-लरतिहु होइ लोक भट बाहन।

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