Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 235 of 453 from Volume 2

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(राशि २) २४८

२९. ।प्रिथीआ, महांदेव, श्री गुर अरजनदेव जी दा मेल। मिहरवान जनम॥
२८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ३०
दोहरा: इम आनो धन को जबै,
करि अुज़दमु गुरदास।
असन बसन सभि खरच जुति,
भयो अनद प्रकाश ॥१॥
चौपई: बहुरो देग चलन नित लागी।
सिख ढिग रहिन लगे अनुरागी।
तिस ही बिधि भाई गुरदास।
रहति भयो श्री अरजन पास ॥२॥
जबि संगति कितहूं ते आवहि।
किसहूं सिख ते इह सुनि पावहि।
जाइ वहिर समझावनु करै।
गुर अरजन इहु निशचै धरैण ॥३॥
लेवहि दरब सरब ही बाहर।
कहि कहि करहि गुरू कअु ग़ाहर।
ले ले आइ अरपना करिही।
सरब रीति के बोणत सवरही१ ॥४॥
जहि कहि की संगति समुझाई।
सगरी श्री अरजन ढिगु आई।
आवन लगी सकल गुर कार।
लगन लगो सतिगुर दरबार ॥५॥
दोनहु भ्राता है करि हीनु*।
पछुतावहि सिख दरब न दीन।
गारी स्राप देति गुरदास।
गुर मारो इहु होइ बिनाश॥६॥
श्री अरजन को मातुल जैसे।
हमरो भी इहु लागहि तैसे।
जे करि गुर को सिज़ख कहावै।
सेवक है करि सेव कमावै ॥७॥


१सरब रीती दे विअुणत संवारदा है।
*पा:-दीन।

Displaying Page 235 of 453 from Volume 2