Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५३

सभि के देखतिगमनो कितै।
अचरज लखो संगथे जितै।
अमरदास निज सहजि सुभाइ।
गोइंदवाल गए निज थाइण ॥३५॥
निसा बिताई बसे निकेत।
चले प्राति को दरशन हेत१।
जाइ बंदना कीनि अगारी।
बैठे संगति केर मझारी ॥३६॥
हुते संग सिख किनहु बखाना।
गुर जी! अचरज पिखो महांना।
जाति हुते हम गोइंदवाल।
मग स्री अमरदास के नाल ॥३७॥
असथी२ एक चरन संग छुहो।
तातकाल नर तनबनि गयो।
जीव अुठो गमनो जित चाहू।
इनहु न कहो सुनो कुछ तांहू ॥३८॥
श्री अंगद सुनि कै तिन पासु।
निकट बुलाइ आपनो दासु३।
नीकी बिधि समझावन करो।
तुमरे चरन पदम बिधि+ धरो४ ॥३९॥
पुन गुर घर की सेव कमाई।
सरब भांति करि भा अधिकाई।
महिमा जानि सकहिण नर नांही।
जेतिक शकति अहै तुव मांही ॥४०॥
संतन मति -अग़मति बिदताइ न५-।
तोहि रिदे महिण भी इह भाइ न६।


१भाव, श्री गुरू अंगद साहिब जी दे दरशनां लई।
२हज़डी।
३भाव श्री अमरदास जी ळ।+पा:-बिध।
४कवल दा चिंन्ह विधाता ने धरिआ है।
५नहीण।
६नहीण भाअुणदी है।

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