Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 24 of 376 from Volume 10

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३७

४. ।भाई भगतू॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>५
दोहरा: जेशट भ्राता संग मिलि,
नीके श्री हरिराइ।
डेरा कीनो कुशल जुति,
अुतरो दल समुदाइ ॥१॥
चौपई: केतिक दिन बिच पुरि करतारा।
करो बास सतिगुरनि सुखारा।
देश बिदेशनि ते सुनि आवैण।
अनिक अकोरन को सिख लावैण ॥२॥
बिते चेत भा परब बिसाखी।
चले आइ नर दरशन काणखी।
जंगल देश दासु समुदाई।
अग़मत पूरन भगतू भाई ॥३॥
दीपमालका अपर बसोए।खशट मास गुर दरशन जोए।
सिख संगति केतिक के साथ।
जाइ बिलोकहि सतिगुर नाथ ॥४॥
अलप बैस ते श्री हरिराइ।
देखहि भगतू को मुसकाइ।
हसन हेतु मुख गिरा अलावैण।
महां ब्रिज़ध को पिखि हरखावैण ॥५॥
आवहु भाई! को अबि घरनी।
करहु सहेरनि सुंदर तरुनी।
कहि सिज़खनि महि अुर हरखावैण।
हसहि हेरि करि मान बधावैण ॥६॥
सुनि भगतू बंदन करि पाइन।
निकटि सु बैठहि अरपि अुपाइन।
जबि डेरा लखि पुरि करतारु।
गुर दरशन को समा बिचारु ॥७॥
गमनो घर ते मग महि आयो।
-तन को अंत समां नियरायो-।

Displaying Page 24 of 376 from Volume 10