Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ३६

४. ।रवालसर दा मेला॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>५
दोहरा: इस प्रकार पंमा रहै, कपट रखै चित मांहि।
सिख सम बाहर प्रेम को, करहि जनावन पाहि१ ॥१॥
चौपई: लगहि दिवान गुरू के पास।
बैठहि आनि सनेह प्रकाश।
अनिक प्रसंगनि बात चलावहि।
श्री प्रभु को बहु बिधि समुझावहि ॥२॥
राजनि को निज पास हकारअु।
करहु मिलावनि बात अुचारअु।
किंवा२ आप अखेर सिधारहु।
चार पांच दिन वहिर गुग़ारहु ॥३॥
तहां मेल राजनि को होइ।
नितप्रति चित अभिलाखी जोइ३।
बिना मिले ते मिटै न अंतर४।
दैश बिनासहु आप निरंतर ॥४॥
मिलहु, अखेर चलहु इक साथ।
सभिनि कामना पुरवहु नाथ!
तुमरे पद अरबिंद स प्रेम।
सभिगिरपत तुम ते चहि छेम ॥५॥
इतने मैण रुवालसर मेला।
आवति भा नर पुंज सकेला।
तबि पंमा लखि अवसर भलो।
कहै गुरू जी मेले चलो ॥६॥
तुमरो जबि सुनि हैण आगवनू।
सगल सैलपति तागैण भवनू।
मिस मेले के सभि चलि आवहि।
रावरि पद सरोज लपटावहि ॥७॥
सिज़खी धरहि आप की सारे।

१पास रहिके।
२अथवा।
३जो (राजे आपदे दरशन दे) नितप्रती अभिलाखी हन।
४फरक।

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