Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) २६०

३३. ।समांिओण करहाली, चिहका गए॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>३४दोहरा: भई निसा पुरि हेरि करि, शाहि सअूर बिचारि।
अुतरि परे डेरा करो, लीनसि अंन अहार ॥१॥
चौपई: लेति देति तहि ग़िकर चलायो।
किसू देश स्री गुर नहि पायो।
इक नर तबहि बतावन कहो।
आज दुपहिरा जबि कुछ ढरो ॥२॥
नगर प्रवेशति मैण गुर हेरे।
अुत दिशि अुतरे कीनसि डेरे।
निसा आज की इहां बितावैण।
हुइ भुनसार सु अज़ग्र सिधावैण ॥३॥
सुनि औचक गुर पुरि इस आए।
शाहि सअूर घने हरखाए।
तबहि बिलोकन अुत दिशि गए।
खोजति थल नहि प्रापति भए ॥४॥
पुन अुत दिश के नर जे मिले।
तिन को बूझति या बिधि भले।
गुर किस थल महि कीनसि डेरा?
करहु बतावनि जिस ने हेरा ॥५॥
इक मानव सुनि सकल बताई।
भयो तिमर तबि गे किस थाईण।
अुतरे हुते पिखे मैण सोइ।
कहां गए अबि लखै न कोइ ॥६॥
सुनि करि खोजति अुर बिसमाए।
परी राति कित देखहि जाए।
इत अुत बिचरति रहे घनेरे।
श्री सतिगुर नांहिन कित हेरे ॥७॥
शाहु नरनि तबि मसलत गाए।
हैण पुरि मैण,नहि अज़ग्र सिधाए।
इति दिश की कीजहि तकराई।
बडी प्रभाति निकसि नहि जाईण ॥८॥

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