Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६५

पहित भात१ को दीन अहारा।
रुचि करि खाइण सरब परवारा।
सिख संगत सभिहूंन अचावा।
बिघन कछू नहिण होवनि पावा ॥२०॥
सतिगुर को प्रताप अति भारी।
बिघन कार२ होए रखवारी।
पूरन सकल काज तिन करो।
श्री गुर पंथ३ रिदे द्रिड़ धरो॥२१॥
भयो सिख तिसु दिन ते गुर को।
सेवहि चरन भाअु करि अुर को।
द्रिड़ प्रतीत कीनसि गुर ओरी।
अपर सभिनि की मनता४ छोरी ॥२२॥
जो सभि ताग अलब गुरू गहि५।
वसतु अलभ नहीण को महि महिण६।
शीहां अुज़पल इसी प्रकारे।
भयो सिज़ख सतिगुर मति धारे ॥२३॥
बहुरो श्री अंगद बहु बारी।
गोइंदवाल जाति हित धारी।
मिलहिण दास को आनणद देति।
वहिर रहहिण कै जाइण निकेत ॥२४॥
इस प्रकार कुछ समो बिताइव।
जग महिण मग सिज़खी प्रगटाइव।
गई बितीत सिसुर रुति७ सारी।
सभि थल भा बसंत गुलग़ारी८ ॥२५॥
चढो चेत सभि को सुख देति।


१दाल चावल।
२विघनकाराण तोण।
३भाव सिज़खी।
४मंनंा, पूजा।
५गुरू दा आसरा फड़े।
६प्रिथवी विच।
७पतझड़ी रुज़त।
८बसंत दी गुलग़ार-फुलखेड़ा।

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