Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) २६३

३१. ।राजे ळ नाल लै के भाई कलयांा श्री अंम्रतसर आइआ॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ३२
दोहरा: कही जथारथ बारता,
सुनि कै न्रिप अज़गानि१।
रिसो, कहिन लागो तबै,
अुचित सजाइ महांन ॥१॥
चौपई: करहु कैद इस ते मनवावहु।
ठाकुर आगै सीस निवावहु।
नांहि त होवहिगी जबि भोर।
इसे सग़ाइ देय हैण घोर ॥२॥
बंदी खाने महि पहुचाो।
तहि गुरु सिमरति समा बितायो।
भई भोर राजा अुठि चला।
जहि ठाकर को मंदिर भला ॥३॥
करि पूजा चंदन चरचायो।
चरणांम्रिति ले सीस निवायो।
कहो बिदेशी को ले आवहु।
मम हदूर करि तिसहि डरावहु ॥४॥
सुनि चाकर ले करि तिह आए।
बोलो न्रिप तैण हिंदु कहाए।
ठाकुर को पाहिन कहि जैसे।अबहि सग़ाइ लीजीअहि तैसे ॥५॥
नांहि त कहु -मैण भूलो भारी-।
जबि हूजै सभि कै अनुसारी।
सुनि करि सिख बोलो कज़लाना।
श्री गुरु अरजन मोर२ महांना ॥६॥
तिन को दियो सीस है मेरा।
नम्रि न किह आगै किस बेरा।
तिनहूं के मैण नित अनुसारी।
किम पाहन को प्रभू अुचारी ॥७॥


१अज़गानी।
२मेरे।

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