Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २६४

३२. ।घोड़ा अुदास॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>३३
दोहरा: इत ऐसे पहुचो तुरंग, अुत लवपुरि की गाथ।
जिम होई, संतहु! सुनहु, कहति कवी तुम साथ ॥१॥
चौपई: निज खाने महि१ सोणधेखान।
खाना खान करो सुपतान२*।
निस बिताइ बड प्राति सिधारा।
इक हय नहि, इक खरो, निहारा ॥२॥
देखि भयो संदेह महाना।
सभि दासन सोण अूच बखाना।
कहां सुपत हो सभि मति अंधो?
इक हय लै तुम किस थाल बंधो?॥३॥
हते कैफ के परे बिहाला।
सुनि सुनि अपनो कीनि संभाला।
घर ते चलो दरोा आयो।
अुठे तुरत ही इम लखि पायो३ ॥४॥
सभिनि आनि सो थान निहारा।
घोरा नहीण, पिखो घर सारा।
हौले हहिर४ कहां चलि गयो?
नहीण संन्हि कित, जहि निकसयो५ ॥५॥
दार किवार असंजति सारे।
लघु ताकी बिन नहीण अुघारे६।
शाहु समीपी सुधि पहुचाई।
कहां भयो हय नहि इस थाईण? ॥६॥
सुनि संभ्रम ते७ तबि चलि आयो।
-इक हय खरो न इक दरसायो-।

१आपणे घर विच।
२खांा खा के सौण गिआ।
*पा:-रस खान।
३भाव दरोगे ळ आइआ जाणिओ ने।
४डरे ते असचरज होए।
५जिथोण निकलिआ होवे।
६छोटी ताकी बिना (कोई) खुल्हा नहीण।
७विआकुलता नाल।

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