Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १)२७४
३६. ।मसंदां दे कहिं ते माता जी दा समझाअुणा॥
३५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>३७
दोहरा: इस प्रकार को मत करो, बाह निकट पुन जाइ।
इक डेरा अरु दुरद को, गुर ते जाचति लाइ ॥१॥
चौपई: भीमचंद इम टरि कुछ रहो।
बाह प्रतीखति आनद लहो।
इत कलीधर करहि बिलासा।
शसत्रनि को नित हुइ अज़भासा ॥२॥
दिन प्रति राखहि आयुध धारी।
महां सुभट जे जंग मझारी।
तोमर तीर तुपक चलिवावैण।
ब्रिंद तुरंगम मोल अनावैण ॥३॥
भई कलम जारी१ भट राखे।
बिदती जगत, गुरू रण काणखे।
बीर सधीरनि की बड भीर।
गहैण तुफंगन, तोमर, तीर ॥४॥
ब्रिंद मसंद बिलद अतंक२।
-दुंदभि परै३- रहैण चित शंक।
-श्री गुर हरिगुविंद के जंग।
सुने समूह भए भट भंग४ ॥५॥
अनिक रीति के पाइ बिखादू५।
जित कित बिचरति ठानत बादू६।
बसहि अनदपुरि विखै सुखारे।संगति आइ चली जग सारे ॥६॥
किस की चिंत नहीण किस रीति।
सरब पदारथ घर मैण नीत।
अुचित नहीण नाहक अुतपाती।
१कलम जारी होणा इक मुहावरा है भाव है फौग़ां भरती करनीआण।
२डरदे हन।
३भाव (कदे) जंग पवेगा।
४मारे गए।
५दुज़ख।
६फिरदे रहे करके झगड़ा।