Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २७८

जिमु जल बिखै बुदबुदा होइ।
जनम मरन देहिनि इम जोइ१ ॥७॥
पज़त्र पुरातन तरु के गिरैण।
बहुर नजुरैण नए लग परैण।
तथा सरीर जरजरी होइ।
मरति न ए अुपजहि जग जोइ ॥८॥
जगत अनादि काल को ऐसे।
चलो आइ जिह पार न कैसे।
अबि तुम सभि ने मोहि पिछारी।
करहु न शोक मोह को टारी ॥९॥
मंगल नाना भांति करीजै।
शबद कीरतन पठहु सुनीजै।
दोनहु पुज़त्र आइ तिस काला।
परे चरन अरबिंद क्रिपाला ॥१०॥
दयाधारि बिवहार बतावहु।
जिमि पीछे हम करहिण, जनावहु।
जगत रीति अरु कुल आचार२।
जैसे आयो होति+ अगार३ ॥११॥
सुनि श्री सतिगुर बाक अुचारे।
जग अर कुल के जितिक अचारे।
हमरे हेत नहीण कुछ करना।
कीरति पठि सुनि नाम सिमरना ॥१२॥
करहु अनद मंगला चारा।
देहु सरीर अगनि ससकारा++।
पुन पुज़त्रन को संगति साथ।
कहि श्री अमर गहायो हाथ ॥१३॥
सभिहिनि को अुपदेश द्रिड़्हायो।
इह मैण अपने थान बिठायो।

१देख!(अ) देखीदा है।
२करतज़व।
+पा:-हुतो।
३जिस तर्हां अज़गे हुंदा आइआ है।
++इह वाक ते इन्हां दा अमल गुर मिरयादा है, इह गुर मिरयादा दा मुज़ढ है।

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