Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) २७६

बिन नर सदन नही निबहीजै ॥२६॥
इम कहि फते सिंघ को मोरा।
काचे लोकन धीरज छोरा।
खान पान करि दिवस बितायो।
संधा समै तिमर गन छायो ॥२७॥
डल सिंघ कंकन दोनहु अुतरे१।
हित तकराई गुर ढिग धरे।
सुंदर खंडा दयो टिकाई।
बाही संग मंच के लाई२ ॥२८॥
निस जबि भई अधिक अंधकारा।
हित भाजन के कीनस तारा।
गुर डेरे की करी प्रदज़छन।
दोइ बार फिरि नीठ+ बिचज़छन ॥२९॥
पुन फिरिबे की धीर न रही।
नमो करी कर जोरे तहीण।
घरबारी दरबारी दौन३।
चढि करि भाजि हटो थल तौन४ ॥३०॥
संग बिराड़ बहुत हटि आए।इक सोढी को भी संग लाए।
जाम जामनी ते प्रभु जागे।
सौच शनान करन को लागे ॥३१॥
चार घरी के अंम्रित वेले।
बसत्र शसत्र पहिरे सभि ले ले।
बहुर कहो डल सिंघ को लावै।
हम ढिग बैठे, जाइ सुनावो ॥३२॥


१दोवेण कड़े अुतारके।
२मंजे दी बाही नाल लाके (खंडा रखिआ)। (अ) गुरू जी दे पलघ दे नाल बाणह लाके (बैठा)।
+पा:-दीन।
३पिछे अंसू ३२ अंक ११ विच दो दीवान, दरबारी सिंघ ते अुस दा भाई घरबारी सिंघ, दज़से
हन। एथे ऐअुण अज़खर पए हन कि मानोण डज़ले ळ ही दरबारी ते घरबारी कहि रहे हन, पर अंसू
३२ अंक ११ मूजब इअुण ठीक जापदा है कि घरबारी ते दरबारी जो दोवेण भरा सन डज़ले दे नाल
ही भज़ज गए।
४अुस थां तोण।

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