Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) २८१

३७. ।श्री बाबा गुरदिज़ता जी जनम॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>३८
दोहरा: रहनि लगे श्री सतिगुरू,
मिलि करि सकल प्रवार।
गरभवती दामोदरी,
पुज़त्र प्रतीखन धारि ॥१॥
चौपई: सेवा करै नानकी कर सोण१।
पति महि प्रीती धारति अुर सोण।
गंगा हेरि हेरि प्रिय नदन।
करहि आनि जग निज को बंदन ॥२॥
अति अनद चित जिस के होवा।
वधो प्रताप पुज़त्र को जोवा।
पौत्रा पिखिनि लालसा जाणही*।
रखहि सनूखा को निज पाही* ॥३॥
ब्रिंद बिघन ते रज़छा करिही।
जनत अनेकनिके अनुसरही२।
सतिगुरु वहिर दिवान लगावैण।
सुनि संगति बहु दिशि ते आवै ॥४॥
निकटि निकटि जे ग्राम तमामू।
सुनि सुनि गुर को जस अभिरामू।
प्रथम न सिज़ख भए, सो आवैण।
ले सिज़खा को अुर हुलसावैण ॥५॥
बनहि दास मनु कामन पावैण।
अनिक अकोरन को अरपावैण।
केतिक दिन प्रति दरशन आवैण।
कितिक निकट रहि सेव कमावैण ॥६॥
सिज़खी अधिक होनि तहि लागी।
सिमरहि सज़तिनाम बडिभागी।
भए देश तिस ब्रिंद निहाल।


१हज़थां नाल।
*छापे दे नुसखे विज़च इन्हां दोहां तुकाण दा पाठ नहीण है।
२करदी है।

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