Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २८६
३५. ।भाई बिधी चंद दी दरबार विच पहुंच॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>३६
दोहरा: दुरग पौर के निकटि इक, कंध अुचेरी थोर।
तिस पर चढि बैठो सुमति, दाव करन को और ॥१॥
चौपई: भले भले केतिक नरआए।
तिन बूझो सभि कहति सुनाए।
खोजी, गणक, गुणी बडि मै हौण।
गई वसतु को सोधि बतै हौण ॥२॥
केचित भाखति गो हमारो।
दिहु बताइ जे गणक१ अुचारो।
सुनि करि संगरी हाथ लगावै।
सूंघति तिस कौ बहुर बतावै ॥३॥
बडे अुपाइ करहि धन पायो२।
बिखम सथान गयो कित धायो३।
किह को कुछ, किह को कुछ कहै।
सुनि सुनि लोक अचंभौ लहैण ॥४॥
हेरन वेश हेतु बहु मिले।
खरे कितिक बातनि रस ढले।
बैठि दिखावति आपा अूचे४।
लगै बिलोकन तहि जु पहूचे ॥५॥
चारु मुकर५ इक धरो अगारे।
बार बार मुख चारु निहारे।
शमश६ सुधारहि अूच चढाइ।
पकरहि संगरी हाथ कदाइ ॥६॥
दास दरोगे को इक आयो।
भीर हेरि लखिबे बिरमायो।
गयो निकटि बूझो इह कौन?
१जे (आपणे आप ळ) जोतशी।
२अुपाइ करके धन पाइआ सी।
३औखे थां विच (लैके) कोईदौड़ गिआ है।
४अुज़चे बैठके आप ळ दिखांवदा है।
५शीशा।
६दाड़्हा।