Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४१
४. ।ढाके बुलाकी दास दी माता॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५
दोहरा: सतिगुर की मरग़ी लई, बिशन सिंघ महिपाल।
करो कूच आगे चलो, लखहि मुहिंम बिसाल ॥१॥
चौपई: श्री गुर तेग बहादर संग।
चले अरूढति होइ तुरंग।
केतिक सिज़ख फकीरनि ब्रिंद।
चले संग गुरु धरे अनद ॥२॥
मात नानकी को करि बंदन।
श्री गुजरी को करि अभिनदन१।
आदि क्रिपाल जु गुजरी भ्राता।
दे धीरज सभि को बज़खाता ॥३॥
संगति को हित सेवा२ कहि कै।
सभि पुरि खुशी करी सिख लहि कै।
चले अगारी श्री गुरु धीर।
साथ न्रिपत अरु सैना भीर ॥४॥
चाले सनमुख देश बंगाले।
दुंदभि बाजे शबद बिसाले।
हुतो मुंगेर नगर३ इक भारे।
बसहि ब्रिंद नर गंग किनारे ॥५॥श्री सतिगुरु तहि अुतरे जाइ।
संगति सुनि आई समुदाइ।
नाना भांति अुपाइन आनी।
धरि शरधा पद बंदन ठानी ॥६॥
जो जो जिस जिस गुर हित धरो४।
ततछिन आनि सु अरपन करो।
सभि पर जथा अुचित गुनखानी।
करी खुशी इछ पूरन ठानी ॥७॥
केतिक बासुर कीनसि बासा।
१प्रसंन करके।
२सेवा वासते।
३नाम नगर दा।
४रखिआ होइआ सी।