Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 281 of 492 from Volume 12

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) २९४३८. ।दिज़ली आअुणा॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>३९
दोहरा: तेग बहादर सतिगुरू,
दुरग थिरे इस रीति।
तुरक हरख अुर महि अधिक,
जानि दीन की जीत१ ॥१॥
चौपई: होनहार मूरख नहि जानहि।
अपनी जराण२ लगी को हानहि।
संग दुरगपति के कुतवाल।
मिलि मसलत कीनसि तिस काल ॥२॥
लिखी बनाइ शीघ्र तबि अरग़ी।
हग़रत! पाइ आप की मरग़ी।
हिंदुनि गुर श्री तेग बहादर।
राखो रोकि दुरग महि सादर ॥३॥
अुतरे हुते बाग महि आइ।
हम तूरन गमने सुधि पाइ।
पंच सअूर साथ जिन और।
आने साथ जाइ तिस ठौर ॥४॥
अबि रावर की मरग़ी जैसे।
लिखि परवाना पठीअहि तैसे।
इम कागद पर लिखो बनाई।
कहो सअूर संग समुझाई ॥५॥
नहि बिलमहु बिसरामहु थोरा३।
दौरो जाहु शाहि की ओरा।
पहुंचहु जाइ देहु तबि अरग़ी।
पढि करि लिखहि बहुर निज मरग़ी ॥६॥
सभि सुधि देइ,आअु ततकाला।
ले इनाम को दरब४ बिसाला।
सुनि सअूर हय दीनि निहारी।

१तुरक मग़हब दी जिज़त जाण के।
२जड़ां।
३(राह विज़च) आराम थोड़ा करना।
४इनाम दा धन।

Displaying Page 281 of 492 from Volume 12