Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २९७

४३. ।सहिग़ादा भेटा लै के आइआ॥
४२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४४
दोहरा: शाहु सभा महि सुजसु सुनि,
श्री हरिक्रिशन बिसाल।
करामात साहिब धनी,
दरशन ते दुख टाल ॥१॥
चौपई: कहति शाहु मन प्रेम बढाई।
सुनीए भो जै सिंघ सवाई!
हमरे संग मेल किम होइ।
हरखति हुइ चहि कै नहि सोइ१ ॥२॥
सौम सरूप२ आरबल बाल।
अुर गंभीर सधीर बिसाल।
एक बार मिलिबो कहि लीजहि।
तिन प्रसंनता युति ठहिरीजहि॥३॥
जैपुरि नाथ कहति कर जोरे।
किसहूं पठहु सतिगुरू ओरे।
मैण गमनौण संग बूझहि जाई।
जिम हुइ मरग़ी, देहि बताई ॥४॥
मिलिबो ठहिरहि तौ चलि आवहि।
नांहिन रावर तहां सिधावहि।
बरतहि निज इज़छा अनुसारी।
बोलबि महि चातुर मति भारी३ ॥५॥
लाखहु संगति दरशन पावै।
कोस हग़ारनि ते चलि आवैण।
कहैण आनि -हम संकट परो।
तिस थल मन महि सिमरनि करो ॥६॥
भए सहाइक तहि ततकाला।
काटि कशट को कियो सुखाला-।
को कहि -मेरे पुज़त्र अुपंना।


१प्रसंन होके (साडा मेल) ओह चाहुंदे हन कि नहीण चाहुंदे।
२चंद्रमा वत (पिआरा) रुप।
३(स्री गुरू जी) बोलं विच चतुर ते भारी बुधीमान हन।

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