Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ३२७
४४. ।नाहण वल टुरना॥
४३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>४५
दोहरा: अगले दिन श्री सतिगुरू, सुंदर सदन सुहाइ।
मसलत करि बहुते सकल, निमे कमल पद पाइ ॥१॥
हाकल छंद: श्री गुजरी तबि चलि आई।
सनमानति अूच बिठाई।
ढिग नद चंद पंच भ्राता।
गुरचरन जिनहु मन राता ॥२॥
पुन थिर मसंदसमुदाए।
सभि गुर दिशि द्रिशटि लगाए।
बहु सुत सनेह सोण सानी।
पिखि माता बात बखानी ॥३॥
हे पुज़त्र! कहहु किह पाती१?
किस न्रिपति पठी, किस भांती?
सो देश अहै दिश कौने?
कहि पठो कहां, इत तौने२? ॥४॥
सुनि मात बाक को बोले।
मुख कमल हीर रद खोले३।
जित जमुना शामल बारी।
तित गिरपति पुरी* अुदारी ॥५॥
कहि नाहन+ तां महिपाला४।
लिखि भेजी अरग़ बिसाला।
इत बैर बधो सुनि लीनो।
निज देश अवाहन कीनो ॥६॥
तबि मातुल कहो क्रिपालू।
लिखि पठो मनोग बिसालू।
रमणीक दूं है सारी।
से भाखहि जिनहु निहारी ॥७॥
१केहड़ी पज़त्रिका।
२तिस ने।
३हीरे वरगे दंदां (वाला) कमल मुख खुहलिआ।
*पा:-पठी।
४अुस राजे ळ नाहन (दा राजा) कहिंदे हन।