Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३२९

४३. ।काणशी पुज़जे॥
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दोहरा: संझ भई जबि लौ तहां,
आवति गन नर नारि।
नी रीब सु प्रेम मन,
मिले भाअु को धारि ॥१॥
चौपई: तहि की संगति सेवा ठानी।
अचवनि हेतु समिज़ग्री आनी।
चावर, चून, दार, घ्रित घने।
आनति धरे चावचौगुने१ ॥२॥
२-सतिगुर अुतरे मातनि साथ।
आइ कदाचित३ पुन कबि नाथ४।
बडे धनी सिख चलि करि आए।
चहो सभिनि को दैण त्रिपताए५ ॥३॥
सुजसु नगर महि वधहि हमारे-।
इज़तादिक गुण बहुत बिचारे।
सेवा सरब दरब ते आदि।
अरपि बिलोके६ गुर अहिलाद ॥४॥
अनिक प्रकारन के अुपहारे।
लगे गुरू के अज़ग्र अंबारे७।
आइ तिहावल अरु पकवान।
बंटहि देण सभि सिज़खनि पान ॥५॥
भीर अधिक कुछ वार न पारा।
बहु कोसनि लौ नगर अुदारा।
सिज़ख हग़ारनि के घर तहां।
सुनि गुर गमन आइ जहि कहां ॥६॥


१चौगुणे चाअु नाल लिआ के धरदे हन।
२संगत विचारदी है।
३कदी कु आए हन।
४फेर नाथ जी कदोण (औं?)।
५जो (कुछ किसे ळ) चाहीदा (भाव लोड़) है, सारिआण ळ देके त्रिपत कर देईए।
६दरशन कीते।
७ढेर।

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