Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ४४
५. ।समिज़ग्री मंगाअुणी॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>६
दोहरा: श्री सतिगुर महांराज प्रभु!सुनियहि हेतु जितेक।
हमन करनि अरु बली महि,
संचहि बनहि तितेक१ ॥१॥
चौपई: प्रथमै घनो दरब ही चहीयहि।
जिस ते सभि कारज निरबहीयहि।
लाख अहूती दैबे हेतु।
मोल समिज़ग्री ले धन देति ॥२॥
लाखहु की गिनती तबि होइ।
सधहि हग़ारनि ते नहि सोइ२।
पुन छज़त्री शुध३ सभि बिधि जानो।
न्रिभै आदि गुण मैण जिस मानो ॥३॥
जबि ते हमन करनि लगि परैण।
तबि ते नेम बिखम सभि धरै४।
ब्रहमचरज ते आदिक जेई।
मन द्रिड़ राखि, न डोलनि देई++ ॥४॥
सरब रिखीक जीत करि रहै।
सुनहि न बहु किछ मुख नहि कहै।
संजम महि तन मन को राखै।
एक अराधन मैण अभिलाखै ॥५॥
अबि कलजुग कौ काल कराला।
नहि मन सुधरहि धरहि बिकाला५।
पूजा करनि करावनहारे।
दोनहु नेम न्रिबाहहि सारे ॥६॥
सतिजुग त्रेता दापुर मांही।
१इकज़ठा करना बणदा है तितना कु।
२हग़ाराण रुपज़यां नाल सो (अुह कारज) नहीण सिज़ध होवेगा।
३भाव जो पविज़त्रहोवे।
४कठन नेम (जो असीण दज़सदे हां) धारन करे (अुह खज़त्री)।
++पा:-मन द्रिड़ राखनि, डोल न देई।
५विकाराण ळ धारदा है।