Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 338 of 372 from Volume 13

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ३५१

४७. ।पांवटा रचिआ॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>४८
दोहरा: भई भीर जित कितहु ते, नर पहुचे समुदाइ।
जंगल महि मंगल करो, कलीधर हरिखाइ ॥१॥
तोटक छंद: हित कोट चिनावनि चाहि धरी।
कलीधर आइसु एवकरी।
अबि लेहु हग़ार कराह करो१।
जमना तट लाइ बनाइ धरो ॥२॥
सुनि आइसु दासनि शीघ्र धरी।
बनवाइ भले बिधि संच करी।
सभि आनि धरो ततकाल तहां।
जमना तट बैठनि थान जहां ॥३॥
गुर नानक आदिक नाम लिए।
कर जोरि खरे अरदास किए।
दसमो पतिशाह चिनावति हैण।
जमना तट कोट बनावति हैण ॥४॥
दिन रैन सहाइक आप बनो।
बिघनागन को ततकाल हनो।
इम होइ खरे अरदास करी।
कर बंदि भले परणाम करी ॥५॥
बहुरो सभि मैण बरताइ दियो।
करि आदर ले मुख खानि कियो।
पुन आप अुठे न्रिप संग लियो।
परधान समूह सु संग भयो ॥६॥
बिसतार जितेक बिसाल चहो।
चिनिबे कहु कोट सुनाइ कहो।
जिस बीच हग़ारहु बीर रहैण।
हय बिंदनि को जहि थान लहैण ॥७॥
लरिबे हित घात बनाइ करो।
हति हेतु तुफंग बिधान धरो२।


१हग़ार रुपज़ये दा कड़ाह प्रशाद करो।
२मारने लई बंदूकाण दी बिधीबनाओ।

Displaying Page 338 of 372 from Volume 13