Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३५४

तातकाल कटि संकट जी का ॥२१॥
पारो ने सभि कहो प्रसंग।
जिस प्रकार आनो सो संग।
सुनि श्री अमर करी तबि करुना।
हरो तिसी को जनम रु मरना ॥२२॥
सतिगुर की अुर प्रीति परी है।
मन बिकार की पीर हरी है।
भयो निहाल निबाब घनेरा।
केतिक दिन गुर निकट बसेरा ॥२३॥
संत संग सम पारस छुहो।
हुतो मनूर सु कंचन भयो।परमानद पाइ करि भलो।
बिदा होइ पारो संग चलो ॥२४॥
डज़ले ग्राम नाम इक लालू।
प्रेमी पारो संग बिसालू।
सतिगुर जाप जपे दिन रैन।
हरे बिकारन ते मन चैनि ॥२५॥
पारो इक दिन आवनि लागा।
गुर दरशन को मन अनुरागा।
कहि लालो गुर के ढिग जावहु।
मो को भी दरशन करिवावहु ॥२६॥
तुव करुना ते भव१ कौ तरौण।
जनम मरन ते मन महिण डरौण।
शरन परो गुर की अब चाहौण।
रिदे संदेहिन सभि को दाहौण ॥२७॥
सिख गुरमुख होवति अुपकारी।
तुव परि सतिगुर करुना धारी।
बधो प्रेम लालू कहु पल मैण।
पुलको तन, लोचन जल गल मैण ॥२८॥
चरन बंदना करहि अगारी।
भयो अधीर दरस को भारी।


१संसार।

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