Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३६४५३. ।सज़चखंड पयान॥
५२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>५४
दोहरा: इस क्रित को करते गुरू,
कहनि सुननि बिसतार।
बीत गई अध जामनी,
चहैण प्रलोक पधारि ॥१॥
चौपई: अंत समा लखि जननी१ आई।
देखति पुज़त्र गात२ मुरझाई।
अज़श्र बिलोचनि ते बहु डारहि।
संकट शोक रिदै बहु धारहि ॥२॥
सरब प्रकार गुरू समरज़थ।
लघु दीरघ टेकहि पद मज़थ।
अंतरजामी सभि मन केरे।
बड ते लघु, लघु करहि बडेरे ॥३॥
तागनि धरबो करनि सरीर३।
जिन के है अधीन अुर धीर।
महिमा सुत की जानति सारी।
गाता देश काल की भारी ॥४॥
भूत भविज़खत महि गति होइ।
सगरी जानति है मन सोइ।
नित सरबज़ग शकति महि भारी।
जिन कीरति जग बहु बिसतारी ॥५॥
निकटि बैठि मुख कमल बिलोका।
सदा प्रफुज़लति कबहु न शोका।
भई दीन मुख बोली बानी।
सुनहु पुज़त्र! तुम गुन गन खानी॥६॥
कहौण कहां मैण बात बनाई?
आगे कही सु आप हटाई।
गुरता आदिक दैबे कार।


१माता।
२सरीर।
३सरीर दा धारन करना या तिआगण करना।

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