Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ३७५

४०. ।संगत ळ शसत्र धारन दा हुकम। साल पज़त्र। जोधा ३ प्रकार॥
३९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>४१
दोहरा: +इक दिन बैठे सभा महि, स्री गोबिंद सिंघ राइ।
थिरो खालसा चहु दिशनि, यथा कुबेर सुहाइ ॥१॥चौपई: सिज़खनि को अुपदेश बतावति।
जिन ते१ जमन मरण छुटि जावति।
भ्राता सिज़खहु२! हित की सुनहु।
सज़तिनाम सतिगुर नित भनहु ॥२॥
जिन ते३ पाइ परम सुख थिरहु।
लख चअुरासी जून न फिरहु।
बडे भाग मानुख तन पायो।
हान लाभ जिस मेण दरसायो ॥३॥
महां रतन४ को पाइ न खोवहु।
रहिन सथिर नहि५ नीके जोवहु।
सिमरन स्री सतिगुर सतिनामू।
लाहा नर तन को अभिरामू ॥४॥
इस बिधि कहति हुते जिह समैण।
इक सिखनी आई किय नमै६।
थिर समीप हुइ लागी रोवनि।
अज़श्रपात ते बसत्र भिगोवनि ॥५॥
श्री मुख ते तबि बूझन करी।
किअुण बिरलापति का दुख भरी?
पुन कर जोरि अुचारनि लागी।
सुनहु गुरू जी मैण दुख पागी ॥६॥
मम भरता दरशन हित आयो।
इत मरि गयो अधिक दुख पायो।


+इह सौ साखी दी ६६वीण साखी है।
१जिन्हां (अुपदेशां) नाल।
२हे भाई सिज़खो।
३जिस (सिमरन) ते।
४भाव मनुखा जनम।
५इज़थे रहिंा सदानहीण।
६नमसकार कीती।

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