Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३८९

५२. ।शाह दा सखती दा प्रण॥
५१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५३
दोहरा: पौर पौर पर ठौर* पुरि,
करहि परसपर बात१।
गहो गुरू हिंदवान को,
अग़मत जुति बज़खात ॥१॥
चौपई:तपत देगचे आग पकाए२।
तिस महि सूकर गन निकसाए।
लघु लघु घुर घुर बोलति फिरैण।
तुरकनि अंग सपरशन करैण ॥२॥
हते कितिक श्रोंत तिन बहो।
दौरति मारति तिन लग रहो३।
छीटैण परी तिनहु पर सारे।
हुइ घाइल बहु थान बिगारे ॥३॥
जित कित काराग्रिह के मांहि।
दीसति फिरते इत अुत जाहि।
गयो इमान तिनहु को जनीअति४।
रुधिर सपरशो सभि को सुनीअति ॥४॥
हिंदुनि के गुर शकति दिखाई।
भए मूड़५ कुछु लखी न जाई।
सुनि सुनि करि हिंदू बिसमाए।
नौरंग को निदति समुदाए ॥५॥
डरहि दुशट ते दुर दुर कहैण६।
मंद मती महिमा नहि लहै।
महां जुलम करता बड पापी।
साधू जन कहु बहु संतापी ॥६॥


*पा:-रौर।
१शहिर दे दरवाग़े दरवाग़े (अते) थां थां लोकीण गज़लां आपस विच करदे हन।
२अज़ग ते पकाए होए।
३लग रिहा है (लहू मुसलमानां ळ)
४जाणिआ जाणदा है।
५(तुरक) मूरख हो गए।
६छुप छुप के कहिंदे हन।

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