Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ३९२

अुचित सग़ाइ दुहनि को चीन।
करे निकासनि गरब हरनि को
अबि तैण तिन की रज़छा कीनि।
लेहु बुलाइ अुबारो दुख ते
जे हंकार भयो अुर हीन।
लोह पाइ कर तपन अगनि की
म्रिदुता गहहि१, सु लखहु प्रबीन ॥१२॥
तबि लधे हरखति नर भेजो
स्री सतिगुर ढिग लए बुलाइ।
गर अंचर कर जोरि दीन कहि
शरन शरन राखहु सुखदाइ!
परे अगारी गहि पग पंकज
द्रिग ते निकरति जल घिघिआइ।
छिमहु छिमहु प्रभु हमहु आप अबि
करी अुचित इह दई सग़ाइ ॥१३॥
श्री अरजन तबि कहोतिनहु कहु
सिज़ख लधे को भा अुपकार।
इस के कहे बखश तुम दीने,
बहुर बिकार न करहु हंकार।
अधिक हुते अपराधी दोनो
श्री नानक गुर निद अुचारि।
तअू छिमा इस ने करिवाई
नतु दुह लोकनि कशट हजार* ॥१४॥
पुन लधे बहु बिनती कीनसि
तन अरोग इन के कहि देहु।
गावनि अुचित सभा महि तबि हुइ
पूरब समसर जबहि बनेहु।
श्री अरजन भाखो इन दोइन
गुर निदा किय भा दुख देहु।
सो अपराध निवारनि हुइ जबि,


१लोहा अज़ग दी तपश ळ पा के नरम हो जाणदा है।
*पा:-मझार।

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