Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ३९३
५४. ।प्रयाग तोण काणशी॥५३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>५५
दोहरा: श्री गुरु करि कै बास तहि, केतिक दिवस बिताइ।
भए तार आगे चलनि, मिलैण मनुज समुदाइ१ ॥१॥
चौपई: सभि ते रुखसद हुइ गुर चाले।
वाहन अनिक सजाइ बिसाले।
संग फकीरनि को समुदाइ।
कितिक तुरंगनि पर भट जाइ ॥२॥
सिवका डोरे संदन जाति।
तजि प्रयाग को गमने प्राति।
थोरे कोसनि डेरा करैण।
सने सने आगै चलि परे ॥३॥
इस प्रकार गमनति गुरु पूरे।
जिस के गुन गन पावन रूरे।
काणशी पुरी पहूंचे जाइ।
डेरा करो हरि सुभ थाइ ॥४॥
जबि ही संगति को सुधि होई।
मिलैण परसपर सिख सभि कोई।
अनिक अुपाइन को करि तारी।
जाइ सु अरपी गुरू अगारी ॥५॥
हाथ जोरि अरदास कराई।
धरे भावना गुर ते पाई।
मुज़खि मसंद आइ पग परो।
दरब जितिक सभि आगे धरो ॥६॥
जीवन लाभ लहो गुर दरशन।
आइ करहि पग पंकज परसन।
नाना भांतिनि अुतसव करैण।लाइ तिहावल आगै धरैण ॥७॥
कितिक दिवस गुरु डेरो राखा।
राखहि संगति करि अभिलाखा।
सिज़खनि मन बाणछति बर जाचे।
१बहुते मनुख मिलदे हन (आ के)।