Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३९३

५१. ।दो कोहां ते डेरा॥
५०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५२
दोहरा: अुठे सभा ते सतिगुरू, पुन माता ढिग जाइ।
नमो करी बैठे तबहि, चलनि प्रसंग सुनाइ ॥१॥
चौपई: मसलति भई भोर प्रसथाना।
पहुचहि दिज़ली शाहु सथाना।
पाछे ब्रिध भाई गुरदास।
सकल कार करि हैण तुम पासि ॥२॥
सभि बिधि महि दोनहु बहु साने।
हरिमंदरि की सेव महाने।
आवनि जानो संगति केरा।
देग चलावनि काज बडेरा ॥३॥
सरब अकोर संभारनि करनी।
जितिक मसंद तिनहु सुधि धरनी।सिज़खनि को दैबो सिरुपाअू।
सदा कार इह सहिज सुभाअू ॥४॥
सुनि जननी, सुत को ब्रिह जाना।
महां सनेह रिदा अकुलाना।
जबि के जनमेण, देखति रही।
अबि लौ प्रिथक भई कबि नहीण ॥५॥
लोचन जल बूंदैण झलकाई।
दीरघ सास भरति दुख पाई।
सुनहु पुज़त्र! समझावौण कहां।
गुर गादी थिति बुधि मति महां१ ॥६॥
भूत भविज़खति के सरबज़ग।
का बच कहै जीव अलपज़ग।
तअू सुचेत रहो सभि काला।
नहीण दुशट के परिये जाला२ ॥७॥
द्रोही महां, दया नहि जा के।
करम चंडाल हिंदु तन तां के।


१(आप) महान बुधिवान हो।
२बंधन विच।

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