Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४०२

५४. ।भाई मती दास दा चीरिआ जाणा॥
५३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५५
दोहरा: सिख कोटन की कैद को, इक बच करे खलास१।
सो तुरकेशुर कैद महि, परखहु गुरू बिलास२ ॥१॥
चौपई: मूढ नुरंगे इक दिन मांही।
गुर ब्रितंत चितवो, मति नांही३।
-आइ शरा महि अबहि सुखाला।
अग़मत किधोण दिखाइ बिसाला- ॥२॥
इकमुज़लां कहु निकटि हकारा।
निज आशै तिस पास अुचारा।
हिंदुनि को गुर कैद मझारी।
समझावहु इम करहु अुचारी ॥३॥
-करामात अपनी दिखरावअु।
नांहि त शरा बिखै तुम आवअु-।
सुनति शाहि ते आशै अुर का।
नहीण महातम जानहि गुर का ॥४॥
जिस थल हुते सु आइ मुलाना।
कहो शाहु को सकल बखाना।
हग़रत ने भेजो तुम तीर।
भनो -जि अहो हिंद के पीर४ ॥५॥
लाखहु सिख कहाइ तुमारे।
सभि मानहि करि भाअु अुदारे।
धन आदिक वसतू अरपंते।
बैठहु तुम बन गुरू महंते ॥६॥
अग़मत धरि करि गुरू कहावहु।
सो हग़रत को तुम दिखरावहु।
जिम भाखहि तिम कीजहि आपू।
लखहि तुहारो बड परतापू ॥७॥
तब श्री गुर नानक के रूप।

१(जिन्हां दा) इक बचन छुडा देवे।
२(ओस गुरू जी दा) कैद विच आअुणा इह गुराण दा कौतक पछांोण।
३जिस मूरख नुरंगे ळ मति नहीण अुस ने इस दिन गुरू ब्रितांत चितविआ।
४जे (आप) हिंदूआण दे गुरू हो।

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