Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४११

दोनहु की सुनि हैण जिम लहो१ ॥३९॥
झूठ साच तबि करहिण नितारा।
सुनि कै सभि संबाद२ तुमारा।
करोण अदालत नीके बैस।
बहु पुरि के मुखि मुखि तुम हैस३ ॥४०॥
इमि सुन सगरे लवपुरि रहे।
-गुर को मति मोरहिण- चित चहे४।
दिज खज़त्री सु जाति* अभिमानी।
भए इकज़त्र द्रजन अनजानी+ ॥४१॥
केतिक दिन महिण अकबर शाहू।
लिखि परवाना भेजो पाहू५।
तुम पर भए फिरादी आइ।
बहु पुरि के नर है समुदाइ ॥४२॥
करहु जबाब दिही इन संग++।
नातुर इन के चालहु ढंग।
परवाना सतिगुर पहि आयो।
सुनो श्रवन -हम शाहु बुलायो- ॥४३॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे दिज बाहज फरिआदी
प्रसंग बरनन नाम तीन चज़तारिंसती अंसू॥४३॥


१जिवेण जाणगे।
२झगड़ा।
३मुखीए मुखीए तुसीण हो।
४चिज़तोण चाहुंदे हन कि गुरू जी दे चलाए मत ळ मोड़ (भाव बंद करा) देईए।
*पा:-जु जात।
+पा:-अज़गानी
५(गुरू जी दे) पास।
++पा:-करहु जवाब आइ है संग।

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