Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ४१०
६०. ।भाई भगतू। भाई फेरू॥
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दोहरा: साहिब भांे* नर पठो, अपनो पुज़त्र हकारि।
श्रवं१ नाम तिस को अहै, ब्रिध के बंस अुदार ॥१॥
चौपई: कीरतपुरि महि सो चलि आयो।
गुर जसु भले भाखि समुझायो।
श्री हरिराइ बाणहु पकराई।
अपने निकटि रखहु सुखदाई ॥२॥
आप करी भाने पग नमो।
गुर ते बिदा होइ तिह समो।पहुचो अपन ग्राम रमदास।
केतिक समो सदन महि बासि ॥३॥
तन को तागि गुरू पुरि गयो।
ब्रहम गान को जिह सुख भयो।
कीरतपुरि महि श्री हरिराइ।
रहे बिराजति गुरता पाइ ॥४॥
सूरजमल रहि निकटि सदीवा।
कहे पिता के करि मन नीवा।
केतिक मास बितीते जबै।
मरवाही तन तागो तबै ॥५॥
जथा जोग तिह को ससकारा।
करम कराइ पुज़त्र तबि सारा।
दीनसि दान अधिक तिस काला।
साध दिजनि त्रिपतावति जाला ॥६॥
जे नहि आए सिज़ख मसंद।
पुन सुध सुनि श्री हरिगोविंद।
केतिक संमति महि चलि आवति।
खशट मास महि को दरसावति ॥७॥
सो सभि लए अकोरनि आए।
भगतू बहिलो सिख समुदाए।
*पाठ किते भारे मिलदा है किते भांे, मतलब भाई भाने तोण ही है।
१सरवं नाम सी।