Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४१५
५६. ।लखनौर निवास। शाह भीख दा मिलना॥
५५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५७
दोहरा: प्रथम बसे१ जुग मात जुति, गुरू इकाकी होइ।
सेवक इक भी संगनहि, तन तीनहु२ तहि जोइ ॥१॥
चौपई: जो कुछ होइ चाहि चित सेवा।
जेठा करहि जानि गुरदेवा।
इक दिज भोजन आनि बनावै।
दोइ समै करि साद अचावै ॥२॥
दिन महि तहि गन बालिक मेल।
वहिर ग्राम ढिग खेलति खेल।
किंदुक३ डंडा४ गहि जुग हाथ।
फैणकहि दूर मार करि नाथ ॥३॥
बालिक धाइ गहैण तहि गेरहि।
पुन डंडा हति किंदुक प्रेरहि५।
कबहुं ब्रिज़छन पर चढि चढि कूदहि।
हारहि बाल तांहि द्रिग मूंदहि६ ॥४॥
कबहूं भाग चलहि किह आगे।
अधिक भ्रमावहि७ हाथ न लागे।
कब दुइ दिशि बालिक सभि होइ।
खेलहि परे८ बंध करि दोइ ॥५॥
जीत हार की खेल मचावहि।
धावहि एक ओज को लावहि।
इक ऐणचहि इक छुट करि जावैण।
इक लर करि निज सदन सिधावैण ॥६॥
इक को इक खिझाइ करि रोकहि।
इम खेलति जे लोक बिलोकहि।
१पहिले (लखनौर विच) वसे।
२दो माता जी ते १ गुरू जी, तिंने ही।
३खिदो।
४खूंडी।
५रेड़्हदे हन।
६जेहड़ा हार जावे तिसबाल दीआण अज़खां मीटदे हन।
७फिराणवदे हन।
८कताराण।