Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ४२०

४७. ।भाई अनद सिंघ॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>४८
दोहरा: मेल मेख संक्रात१ को,
चहुदिशि ते समुदाइ।
आनि अनदपुरि के बिखै,
दरस अनद को पाइ ॥१॥
चौपई: सतिगुर बसत्र शसत्र को पहिरे।
आनि सिंघासन पर तबि ठहिरे।
सुभट सभासद सभा मझारी।
थिरे नमो करि दरस निहारी ॥२॥
संगति आवहि अरप अकोरहि।
पग पंकज बंदहि कर जोरहि।
को बैठहि को खरो निहारहि।
त्रिपतैण नहीण हरख अुर धारहि ॥३॥धनुख बान युति जनु रघुनाथा।
लोक औध के२ टेकहि माथा।
मनहु दारका महि घन शामू।
जादव देखहि दुति अभिरामू ॥४॥
बदन चंद को मनहु चकोरे।
इक टक नेत्र लगे गुर ओरे।
रिदै बिलद अनदहि संगति।
चहुदिशि पिखहि ब्रिंद करि पंगति ॥५॥
इक सिख आइ सिज़खंी सहित।
बंदन करी भाअु मन महत३।
हाथ जोरि करि बिनै बखानी।
साचे पातिशाहु! सुखदानी ॥६॥
इक सुत हमरे दयो सु रावरि।
तज घरनी थिरियो जनु बावर४।


सौ साखी दी इह चअुथी साखी है।
१विसाखी।
२(मानोण) अयुधिआ दे लोक।
३मन दे वडे प्रेम नाल।
४बावला होइआ रहिदा है।

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