Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ४३२
५६. ।गुरू जी दा सीत प्रसाद दबाया। शमीर दे अनेकाण जनम सुपने विच
भुगाए॥
५५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>५७
दोहरा: इस प्रकार बीते दिवस, दस एकादश जान।
नाना भोजन को करहि, अचवावहि हित ठानि ॥१॥
निशानी छंद: इक दिन करो अहार शुभ, धरि थार मझारे।करो परोसनि तबि भले, धरि गुरू अगारे।
थिरो शमीरा निकट तबि, प्रभु अचन करंते।
नीर कटोरा देति भर, ले पान१ पिवंते ॥२॥
त्रिपति होइ सतिगुर रहे, निज बिनै बखानी।
दीजै सीत प्रसादि निज, हम करि हैण खानी।
श्री मुख बोले थाल लिहु, बैठहु इस थाना।
करहु खान हित ठानि कै, शरधालु महाना ॥३॥
कर जोरति बोलो बहुर, लै कै घर जावौण।
सभि कुटंब संग बंटि कै, धरि भावनि खावौण।
इम कहि थार अुठाइ कै, घर पहुचो जाई।
भ्राता मातुल आदि जे, सभि लीए बुलाई ॥४॥
थार जु महांप्रशाद को, मैण जाचि सु लायो।
पावहु बहु कलान को, हुइ है मनभायो।
इम कहि जबै प्रसादि ते, अुतराइ रुमाला।
देखति झटका अुर डरे, धरि चिंत बिसाला ॥५॥
मातुल जैतो का२ तबै, कहि सभि समुझाए।
हम गुज़गे सुलतान को, पूजहि मन भाए।
क्रज़धति है इस अचे ते, धन धाम बिनासै।
हमरे पीर कदीम के, पूरति सभि आसै ॥६॥
चिंता बहुत शमीर के, तिस छिन हुइ आई।
-गुर ते आनो जाच मैण, इस तरक अुठाई।बडे भाग ते प्रापती, पारस जिम रंका।
नहि मातुल समझै रिदै, ठानति कुछ शंका३- ॥७॥
१हज़थ विज़च।
२जैतो वाला मामा।
३गिलानी।