Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४३६

५९. ।लखनौरोण कीरति पुरि आअुणा॥
५८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>६०
दोहरा: तिस निस महि बिसराम करि,
दुखति मात लखि दोइ।
कहि धीरज के बाक पुन,
ढिग क्रिपाल थिर होइ ॥१॥
चौपई: अति समरज़थ जुति पिता हमारे।
चहहि, सु रचहि न लगहि अवारे।
तुरकेशुर जुति सभि तुरकानहि।
एक बाक ते ततछिन हानहि ॥२॥
गुर की बात कहां सो कहैण।तिन के दासन दास जु अहैण।
सभि सलतन१ को करहि बिनाश।
होहि एक ही जिन हुतास२ ॥३॥
मतीदास जिम कहो तहां ही।
सो भी बात सुनी कै नांही३।
सिख काराग्रिह४ ते जो आए।
हुते निकट तिन सकल बताए ॥४॥
बरजो गुरन, शकति सभि लीनि।
तिस को तुरकन पुन हनि दीनि५।
तन को अंत आपनो जाना।
दोश देन हित कीनि बहाना ॥५॥
महिमा तिन की तुम सभि जानहु।
कोण संकट चिंता जुति ठानहु।
प्राति होति सिख तहां पठावहु६।
आप आनद पुरि ओर सिधावहु ॥६॥
सुनि पित के सभि रीति संदेसे।


१राज ळ।
२इक ही (दास) अगनी वत (सारिआण ळ नाश करन वाला) समझो।
३सुणी है कि नांही।
४कैदखाना।
५फिर अुस (मती दास ळ) तुरकाण ने मार दिज़ता।
६भाव दिज़ली भेजो।

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