Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४५५
बिशुकरमा१ बुधिवान बडेरा।
सुता सुब्रचला++ तिस के भई।
सरब अंग सुंदर दुति मई२ ॥१२॥
आणख पांखरी कवल सरीखी३।
जिन की कोर४ बान सम तीखी।
गज गामनि५ सुठ कंठ कपोती६।
जिस को पिखि रति लजति होती ॥१३॥
सो सूरज ने बाहन ठानी।
रुचिरंगी७ निज घर महिण आनी।
कोमल अंगा कट ते छीनी८।
मेचक केसा९ अुरुजनि पीनी१० ॥१४॥
कितिक काल बीतावनि कीना।
सूरज दुसह११ तेज ते चीना।
तअूदुखिति है रही निकेत।
कुल की लाज राखिबे हेतु ॥१५॥
दोइ पुज़त्र इक तनुजा होई।
जमुना नाम जानीयहि सोई।
मनु अरु जम१२ दूसर सुत होवा।
महां प्रताप साथ अुदतोवा१३ ॥१६॥
पति के तेज संग हुइ बिहबल।
१कारीगरी दा देवता।
++संस: सुवरचला।
२प्रकाश वाली।
३कवल दी पंखड़ई वाण।
४कोना, भाव अज़ख दे कोने दी मटक।
मटज़का, नग़र।
५हाथी वत चाल वाली
६सुंदर गरदन कबूतरी वरगी।
७सुहणे अंगां वाली।
८कूले अंगां वाली ते लकोण पतली।
९काले वालां वाली।
१०कठोर सथनां वाली।
११ना सहारन योग।
१२मनू ते धरमराज।
१३प्रगट हन, (अ) प्रगट होए।