Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४७०
किधौण आन है- करति संदेहू१।
कीनि गमन निज तजि कै ग्रेहू ॥७॥
सनै सनै तिह संग मझारा२।
श्री गुर के तबि निकट सिधारा।
खरो दूर ते करति चिनारी।
-है तो सही सु लघु आकारी३- ॥८॥
परम प्रसंन भयो दिज हेरे।
कही अशीरबाद हुइ नेरे।बैठि निकट लखि नीकी रीति।
निशचै धरति भयो तबि चीत ॥९॥
हे प्रभु! मैण दिज जानहु सोई।
पूरब मिलो बरख बहु होई।
पिखो पदम पद पदम मझारी४।
तब न जाचना कीनि तुमारी ॥१०॥
जबि इस को फल प्रापति होइ।
तबि लेवौण चित बाणछति जोइ।
करो हुतो तकरार५* सु जोवा६।
प्रापति समैण आइ सो होवा७ ॥११॥
मन बाणछति मुझ को अबि दीजै।
प्रथम कहो सिमरनि सो कीजै८।
श्री सतिगुर सुनि भए प्रसंन।
कहिबो दिजबर तेरो धंन९ ॥१२॥
जोण तैण कहो सु नीके भयो।
चज़क्रवरति को छज़त्र सु दयो।
१अथवा (कोई) होर होवे (इस तर्हां) करके संसा करे।
२तिस मेल विच।
३मधरे, छोटे कज़द वाले।
४कवल दे चिंन्ह चरन कवलां विच।
५इकरार।
*पा:-करार।
६देखिआ, जाणिआ।
७सो अुस दे प्रापत होण दा समां आ गिआ है।
८याद कर लओ।
९तेरा कहिंा धंन हैसी।