Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ४६८

५९. ।काणगड़ पुरोण कूच। फतूही राहक॥
५८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>६०
दोहरा: तार भए श्री सतिगुरू, चलि पहुचे तिस काल।
साधू रूपा दौन मिलि, बंदति प्रेम बिसाल ॥१॥
सैया छंद: हम को हुकम अहै किस बिधि को,
महाराज! अबि देहु सुनाइ।
दरशन की अुर अधिक लालसा
जथा कमल बाणछति दिन राइ१।करे निहाल दीनि बडिआई
जुग लोकन के बने सहाइ।
रावर के मानिद क्रिपाल न
रज कन ते सम मेरु बनाइ ॥२॥
कहो गुरू तुम करहु दे को
सभि को देहु असन बरताइ।
बरु अरु स्राप सफल हुइ तुमरे
त्रिखी ते सम काटति जाइ।
सति संगति कर सिमरहु सतिगुर
अपर रूप धरि मैण पुन आइ२+।
तुव संतति सभि मिलहि सेव करि
अंग संग गुर तुमहि सहाइ ॥३॥
जोधराइ ले संग ब्रिंद नर
चरन कमल टेको सिर आइ।
भए अरूढन सतिगुर सामी
पहुचवान हित साथ सिधाइ।
दुंदभि बजे, नकीब पुकारति,
सैना चली मनहु दरीआइ।
एक कोस पर थिर हुइ बोले
हटहु अबै सादर हित आइ३ ॥४॥


१सूरज ळ।
२मैण फिर आवाणगा होर रूप धारके।
+देखो रुत६ अंसू ५४ जिज़थे दसम पातशाह जी परम सिंघ ते धरम सिंघ जी दे बहुड़दे हन जो कि
भाई रूपे जी दी संतान सन ते इह वर अुज़ेथे फलदे हन।
३जो आदर ते हित करके (टोरन लई) आए हन सो हुण मुड़ जाण।

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