Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ५९

६. ।संगतां दा आअुणा॥
५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>७
दोहरा: ब्रिंद मसंद अनद अुर लाइ बिलद अकोर।
आन थिरे गुर अज़ग्र सभि बंदति हैण कर जोरि ॥१॥
चौपई: ब्रिधके घर की सूखम चारु१।
पूरब देति भए दसतार।
कोरदार२, चहु ओरन चीरे३।
जरे बिकीमत जिस महि हीरे ॥२॥
ग़बर ग़ेब जुति जगमगकारी४।
जिगा दई सिर बंधि अुदारी।
जरे५ जवाहर जागति जोती।
अुज़जल गोल पोइ बिच मोती ॥३॥
कली चारु अुतंगहि करी६।
सतिगुर सीस धरी बिधि खरी७।
बहु मोला इक दीनसि बाग़८।
कर बिठाइ देखो महांराज ॥४॥
बेदी, तेहण, भज़लन बंस।
देति बसत्र शुभ अरुअवितंश९।
पुन मसंद गन देशनि केरे।
धरिते निज निज भेट अगेरे ॥५॥
लगो अंबार पार कछु नांही।
गुर प्रसंनता हित अरपाहीण।
इक बिर१० बोल अुठे जैकारा।
भयो समाज अनदति सारा ॥६॥


१ब्रीक ते सुहणी।
२किनारिआण या पहिलां वाले।
३चारोण पासिओ चीरे होए हीरे।
४बड़ी शोभा वाली ते जगमग करन वाली।
५जड़े हन।
६अुज़ची कीती।
७चंगी तर्हां।
८बाग़ ।फा:, बाग़॥।
९शुभ कज़पड़े ते गहिंे देणदे हन।
१०इज़को वेरी।

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