Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ५८

७. ।पंजाब कौर दी सतिगुराण ळ चिज़ठी॥
६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>८
दोहरा: संसकार* समिज़ग्री सहित तन,
लीयो वहिर निकास।
जल ते दयो शनान करि,
पिखि गुर पुज़त्र अुदास ॥१॥
चौपई: तन महि नहि प्रवेश पुन कीनो।
हुइ निरास सुरि पुरि मग लीनो।
भ्रात गुरू को स्राप चितारा।नहि जीवन महि निज मन धारा ॥२॥
गगन गिरा१ किन किन सुनि लीनी।
गरबति महिद मसंद न चीनी२।
इक पंजाब कुइर अुर धारी।
दुखति बापुरी३ भई लचारी ॥३॥
नहि कुछ जतन बनो तिस पासा।
रोदति अधिक लेति बड सासा।
जुग सौतन४ जुति बिलपहि दासी।
सभि को आनि परो दुख रासी ॥४॥
ब्रिंद मसंदन करि सभि तारी।
देहि चिखा परि धरि करि जारी।
मज़जन करि बैठे समुदाए।
पुन अुठि अुठि निज सदन सिधाए ॥५॥
दरब आदि वसतुनि संभारे।
लगे दुरावनि जिस अनुसारे।
सुर पुरि रामराइ चलि गए।
अपरन ते नहि त्रासति भए ॥६॥
जहि जहि छोरे हुते मसंद।
सिख संगति ते ले धन ब्रिंद।


*इस पद विच दो मात्राण वध हन।
१आकाश बाणी।
२बहुते हंकारी मसंदां ने ना पछांी।
३विचारी।
४दो सौणकंां।

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