Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ४९२६७. ।लुबाणे सिज़ख ने धड़ दा ससकार करना॥
६६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>६८
दोहरा: हुतो लुबाणा सिज़ख तहि,
ब्रिखभ बिं्रद जिह पास।
गिनती बिखै हग़ार दस,
निकटि रखै गन दास ॥१॥
चौपई: गुर कारन को सुनि दुख पायो।
दरस बिलोकन के हित आयो।
तरे ब्रिज़छ के गुर धर परो।
देखि बिलोचन महि जल भरो ॥२॥
-हम सिज़खनि को धिक बहु भारी।
इम सतिगुर की दशा निहारी।
प्रथम आपने प्रान न दए।
तुरक त्रास ते दुरि दुरि गए ॥३॥
सुनि डिंडम को किनहु न मानी।
हम नहि सिज़ख, न दे मत हानी१।
ससकारन को करौण अुपाअू।
जथा न जान सकहि नर काअू ॥४॥
बिदत करौण, होइ न ससकारा।
गहहि कि देहि मोहि को मारा।
गुरू सहाइक होहि जि मेरे।
छपि करि ले गमनहु किस बेरे- ॥५॥
करो मनोरथ घर हटि गयो।
अनिक अुपाइ सु चितवति भयो।
ब्रिखभ ब्रिंद इकठे करिवाए।
कितिक सकट महि तूल२ भराए ॥६॥करे इकज़त्र आपने नर गन।
ठानोण जतन कीनि निरनै मन।
सकट भरे प्रथमै पहुचाए३।


१असीण सिज़ख नहीण (जे सिज़ख कहांगे) मतां साळ मार ही न देवे।
२रूई।
३(स्री गुरू जी दे धड़ वाले थां) पहुंचाए।

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