Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५२५

सरबग आप सदा गुनखानी ॥३४॥
किह सोण नहीण सनेह तुमारा।
केवल सेवक बसि अनुसारा।
श्री नानक तजि सुत१ गुनखानी।
दास बिठायहु अपनि सथानी ॥३५॥
तिमि श्री अंगद बसि है सेवा।
तुमहि बिठायहु जग गुरदेवा!
निज अनुसारि पुज़त्र नहिण जाने।
अजर जरन गुन हीन पछाने ॥३६॥
तिमि सुभाव रावर को जानो।
दासन के बसि इहु प्रन ठानो।
साक आप के दोनहु जेई।
सेवक भी बिसाल हैण तेई ॥३७॥
दोनहु सेवा करहिण बिसाला।
घालहिण घाल जाल२ सभिकाला।
गुर संगति की सेवा ठानहिण।
बापी कार करति हित मानहिण ॥३८॥
सभि बिधि सोण समान हैण तुम को।
तअू होति संसै सभि हम को।
सतिगुर पूरन सरब समान।
एक द्रिशटि सभि पर ब्रहम गान ॥३९॥
बादहिण आपस महिण हम ऐसे।
दोनो दीखति हैण इक जैसे।
क्रिपा द्रिशटि तुम धारन करो।
इक सम दोनहु सोण हित धरो ॥४०॥
तअू देखीयति कबि कबि ऐसे।
रामदास पर हुइ बहु जैसे।
सो भी सेवा करहि घनेरी।
निस दिन लगो रहति बिन बेरी ॥४१॥
होवहि इन महिण कवन बिसाला।


१श्री नानक जी ने सुपुज़त्र तजके।
२कमाअुणदे हन बहुती कमाई।

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