Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ६६

८. ।चंदू दा वैर वधिआ॥
७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>९
दोहरा: दिज नाई छूछे हटो तिन को सुनो ब्रितंत।
महां दुखति गमनति भए रिदे अधिक पछुतंत ॥१॥
चौपई: सनै सनै दिज़ली पुरि गए।
मग महि किनहु लूटि जनु लए।
घर खज़त्री के पहुंचे जाइ।
जहां मूढ बैठो गरबाइ ॥२॥
गिलमि गलीचे१ फरश बिसाला।
बैठिक मैण बैठो खुशहाला।
बड अुपधान२ धरो जिह पाछे।
सगरे सेत बसत्र तनु काछे३ ॥३॥
बैठे लिखिनहार ढिगब्रिंद।
कितिक खुशामद करति बिलद।
कारज अरथी मानव केई।
जोरति हाथनि जाचति सेई ॥४॥
बडी कचहिरी महि सो बैसा।
अुज़तर देति जोग जिस जैसा।
बिज़प्र अशीरबाद कहि जीवहु।
चिरंकाल जसु जुति जग थीवहु ॥५॥
मुख मुरझायो बहु दिज केरा।
चंदू तबहि बिलोचन हेरा।
पांइ लगहि४, पांधा! कहु बाती।
तुझ देखति धरकति मुझ छाती ॥६॥
फरकति बाणम अंग तन मेरे।
नहीण शगुन कुछ आछे हेरे।
बदन सचिंत देखि करि तोही।
अति संसै होवति अुर मोही ॥७॥


१नरम विछौंे ते कालीन ।ा: गिलीम = कबंली, गज़दा। : ालीचह = कालीन॥
२तकीआ, सिरहांा।
३सजाए होए।
४पैरी पैणदा हां।

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