Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ५७३

६६. ।हरबंस तपा मुरारी आदि सिज़खां प्रति अुपदेश॥
६५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>६७दोहरा: हुतो तपा हरिबंस इक,
सेव करहि ध्रमसाल।
थकति जु सिख तिस के चरन,
धोइ तपत जल नाल ॥१॥
चौपई: देखि छुधिति भोजन अचवावै।
निसा सुपति के पांइ दबावै।
सीतकाल भूरे तबि देति।
धरमसाल लेपन करि लेति ॥२॥
जागहि प्रथम जु पाछलि राती।
जल करि तपत नुल्हाइ१ प्रभाती।
पढति रहै पुन सतिगुर बानी।
इम सेवा को ठानि महानी ॥३॥
कवि गुरदास कीनि जो बानी।
इक दिन पढति हुतो रुचि ठानी।
कितिक सिज़ख बोले तिस पाही।
गुरबानी कोण पढिहैण नांही? ॥४॥
अपर कविनि की सिज़ख नहि पड़्हैण।
सतिगुर सबद प्रीत ते रड़्हे२।
झगर परसपर गुर ढिग आए।
बाद प्रसंग३ जु सकल सुनाए ॥५॥
इह सभि बरजति तरकति अही।
पढनि गिरा, गुरदास जु कही।
सुनि श्री अरजन बाक अुचारा।
जिस महि श्री गुर सुजसु अुचारा ॥६॥
सज़तिनाम की महिमा कही।
तिस कहु पढहु सु तरकहु नहीण।
सतिगुर समता चरहि जि मूढ।१नवाव्हे, इशनान करावे।
२ररै = पड़े।
३झगड़े दा प्रसंग।

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