Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ६०६

६५. ।भोजनां दी अंस चुले विच। नित्रक्रिआ।
बीबी भानी ते श्रीअरजन जी ळ वर॥
६४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>६६
दोहरा: घटि घटि बापक सतिगुरू, जिस अकाश सभि मांहि।
सो जानहिण इस भेव को, क्रिपा द्रिशटि है जाणहि ॥१॥
चौपई: इक दिन दे सथल गुर गए।
सिज़ख सरब ही संगी भए।
लवं बिहीन ओगरा खाइव।
पानी पानि कीन त्रिपताइव ॥२॥
खट रस को अहार शुभ भांती।
सतिसंगति अचवो करि पांती१।
सूखम ओदन पाइस२ घनी।
सरपी सिता साद सोण सनी३ ॥३॥
अनिक भांति की सूप४ बनाई।
डाल मसाले साद रसाई५।
गोधुम चून सु फुलका करै।
म्रिदुल पातरे बहु करि धरै६ ॥४॥
इज़तादिक शुभ होति अहारा।
पिखि करि बुज़ढे बाक अुचारा।
श्री सतिगुर जी परम क्रिपाल!
होति अहार अनेक रसाल ॥५॥
सो सभि संगति अचै सु चीन।
आप ओगरा लवं बिहीन।
इह सिज़खन के अुचित न कोई।
तुम बिन अचहिण साद रस भोई ॥६॥
जसु तुम अचहु चाहि करि चित मैण।
सो सिख अचहिण रीति इह हित मैण।


१पंगत बणाके।२पतले चावलां दी खीर।
३घिओ ते खंड दे सवाद नाल मिली होई।
४रसोई।
५साद विच रसाई होई, भाव साद दार कीती होई।
६नरम ते बहुत पतले तिआर कर रखे।

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