Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ६३२

६८. ।श्री गुरू अमरदास जी दा जोती जोत समाअुणा॥
६७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>
दोहरा: बुज़ढे संमत गुरू हुइ१,
पैसे पंच नलेर।
रामदास की भेटि धरि,
क्रिपा द्रिशटि को हेरि ॥१॥
चौपई: करी प्रदज़छन फिर चहुण ओरे।
बंदन करति भए कर जोरे।
तबै मोहरी संगति है कै।
नमो मोहरी किय सिर नै कै२ ॥२॥
पुन सभि सिज़खन कीनसि बंदन।
जानि गुरू गन पाप निकंदन।
इमि दै करि सभि जग गुरिआई।
हित प्रलोक है तार गुसाईण ॥३॥
नेत्र प्रफुज़लित जनु अरिबिंदा।
दिपत बदन दुति इंद मनिदा।
दासन देति अनद बिलदा।
सुधा गिरा दुख दुंद निकंदा ॥४॥
जहिण कहिण प्रगट बिसाल प्रसंगा।
तन को तजहिण सुछंद अुमंगा।
सुनि सुनि निकट ग्राम नर जेई।
हेत दरसबे पहुणचहिण तेई ॥५॥
बाहन पर अरोह कै आए।
को पाइन ते तूरन धाए।-दुरलभ दरशन बड फल दाता-।
सुनि अस को न आइ अुमहाता३ ॥६॥
चहुण दिश मग आवहिण समुदाए।
पुरि प्रविशैण गुर दरशन पाए।
श्री अंगद को नदन दातू।

१भाव, बुज़ढे जी दे मशवरे नाल गुरू जी ने।
२फेर संगत दा मुहरी (आगू) होके मोहरी जी ने सिर निवाके मज़था टेकिआ। (अ) संगत दे मोहरी
भाव बाबे बुज़ढे जी दे नाल होके मोहरी जी ने।
३ऐसी गज़ल सुणके किहड़ा अुमाह के ना आअुणदा?

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