Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) २१

२.।संगतां दे मेले ते चाअु, अुतसाह होली॥
१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>३
दोहरा: मास बिते केतिक जबहि, दिनप्रति चहति विशेश।
-बिदतहि देवी चंडका, अुपजहि पंथ अशेश- ॥१॥
चौपई: आयो फागुण मास सुहावति।
गावति रिदै प्रमोद बधावति।
सभि महि करि बसंत परधान।
अपर राग सभि गाइ सुजान ॥२॥
पुरि अनद आनद बिलदो।
जहि कहि गावहि गुर पद बंदो।
चलि आयहु होले कअु मेला।
चहु दिशि ते नर भए सकेला ॥३॥
चारहु बरन सिज़ख गुर केरे।
दरशन चाहति आइ घनेरे।
पूरब१ जगंनाथ लगि संगति।
अपर टापूअनि की मिलि पंगति ॥४॥
दज़खं महि दुवारका तांई।
पहुचे सिज़ख आनि समुदाई।
पशचम बलख बुखारा आदि।
आवहि सिज़ख धरहि अहिलाद ॥५॥
तिम ही अुज़तर दिशा बहीरा।
आइ कमाअूण अरु कशमीरा।
कहि लौ देश नगर कौ गिनीअहि।
कहि लौ संगति नाम सु भनीअहि ॥६॥
दसमे पातशाहु जसु दूना।
सुनहि चगूंन कहूं दस गूना२।
अुपजहि दरशन कीअभिलाखा।
आवहि चले भाअु बड राखा ॥७॥
जथा शकति ले ले अुपहार।
चहैण सु अरपनि गुर दरबार।


१पूरब वज़लोण।
२चौगुणां ते किते दस गुणां।

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