Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) १०३

१३. ।सूबिआण ने तोपां चलाअुणीआण॥१२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>१४
दोहरा: अवलोकै द्रिग क्रोध ते, ग़बरदसत कहि बात।
सुनि बजीद खां अबि, इहां बैठे करीअहि घात ॥१॥
ललितपद छंद: अलप बिसाल तोप गन आनहु
एक बार दिहु छोरी।
शिसत लगाइ हतोण मैण आपे
तजि गोरा गुर ओरी ॥२॥
हुकम दीन ततकाल मंगाई
लशकर मांहि जु ठांढी।
सुभट हग़ारहु मिलि करि जोरी
हेरन को रुचि बाढी ॥३॥
ब्रिखभ तुरंगनि ऐणचन करि कै
अरु मानव समुदाई।
बल ते पेल धकेलति लाए
नहीण बिलब लगाई ॥४॥
करी बरोबर थिर इक बेरी
गज ते अुतरो सूबा।
अूच नीच तोपन मुख करि कै
तकै शिसत हुइ कूबा१ ॥५॥
सरब सभा को अरु सतिगुर को
ताकि ताकि बिधि नीकी।
थैली भरि बरूद अरु गोरा
करि करि मति निज ही की ॥६॥
अुत सिंघन गति इन की पिखि करि
ब्रिंद तोप अनमानी२।
महाराज अविलोकहु अुत कौनीचन दुरमति ठानी ॥७॥
खरे मतंग तुरंगम पुंजं
मानव जहि समुदाए।


१कुज़बा होके।
२अनुमान कर लिआ कि तोपां बहुत आईआण हन।

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