Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ११२

१४. ।घेरा। गुरू जी ने तीर चलाअुणे॥
१३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>१५
दोहरा: अुठे बहुर जबि प्रात भी, बादत बजैण बिसाल।
संख नफीरी नौबतां, रणसिंघे ततकाल ॥१॥
ललितपद छंद: बजे नगारे दोअू दिशि महि,
अुतसाहति भट होए।सौच शनान बने सवधाना,
निज निज थान खरोए ॥२॥
रोकहि तुरक पंथ जे पुंजहि१,
जो चाहति पुरि जायो।
ब्रिंद वपारी वरज दीए सभि,
लूट लेहिगे आयो२ ॥३॥
निकटि ग्राम अरु पुरि जन जेई,
सभि महि डिंडम फेरा।
आनद पुरि महि कुछ पहुचावै,
अुचित सग़ाइ बडेरा ॥४॥
करो न कुछ विवहार३ तहां को,
करहि जि देवै लेवै।
दुर करि करहि बिदत हुइ पकरैण४,
सदन लूट तिह लेवैण ॥५॥
रोपर अरु हुशीआर पुरा पुरि,
इज़तादिक सभि ठाके।
दूर दूर चहुदिशि करि डेरे,
त्रसति अनदपुरि ताके ॥६॥
इम घेरा करि लशकर अुतरो,
आइ जाइ नहि कोई।
कबि कबि चढहि खालसा इत अुत,
अरहि अरी रण होई५ ॥७॥


१सारे राहां तोण।
२जो आवेगा लुट लवाणगे।
३वपार।
४जो लुक छुप के करेगा प्रगट होण ते अुस ळ पकड़ लवाणगे।
५जे दुशमन अड़े तां जुज़ध हो पवे।

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